अतिथि देवो भव:

भारत की संस्कृति सत्कार और सेवा की संस्कृति है। भारतीय आध्यात्मिकता की दृष्टि से जब कोई अतिथि बनकर हमारे यहां आता है तो उसके प्रति विनम्रता व शिष्टता तथा  उसे सम्मान देना हमारा कर्तव्य बन जाता है। हमारे यहां कहा गया है जो अकेले भोजन करता है वह पाप का भोजन ग्रहण करता है इसलिए सदा बांट कर भोजन ग्रहण करें। अतिथि हमारे घर आकर हमें सौभाग्य प्रदान करता है इसलिए जो भी हमारे पास सेवा की संसाधन उपलब्ध हैं उससे हमें उसका सत्कार करना चाहिए। इतिहास में संत नामदेव का अतिथि सत्कार बहुत प्रसिद्ध है। यदि उनकी कुटिया में कोई कुत्ता भी आ जाता था तो वे उसकी भी अतिथि समझकर सेवा करते थे। बिना घी की रोटी भी कुत्ते को भी नहीं देते थे। अतिथि की जाति, धर्म, पद या क्षेत्र नहीं पूछा जाता। आचार्य चाणक्य ने कहा है कि जिसके आवास पर जितने अधिक अतिथि आते हैं वे उस व्यक्ति का उतना ही सम्मान बढ़ा जाते हैं। अथर्ववेद में व्यवस्था दी गई है कि गृह स्वामी को अपने घर में पधारे हुए विद्वान एवं व्रतनिष्ठ अतिथियों का स्वागत किस प्रकार करना चाहिए।  अतिथियों के आगमन पर प्रथम उनके चरण प्रक्षालित कर उन्हें आसन देना चाहिए तथा जल सेवा कर भोजन की थाली उनके समक्ष आदर के साथ रखनी चाहिए ।भोजन के पश्चात अतिथियों की सेवा  मिष्ठान्न से करनी चाहिए। मनुस्मृति में वर्णित है कि यदि कोई अतिथि घर आता है तो स्वामी  यह ध्यान रखें कि शक्ति के अनुसार आसन ,भोजन ,बिस्तर, जल और फल आदि उपलब्ध कराए जाएं। कोई भी अतिथि घर में उपलब्ध सुविधाओं से वंचित ना रह जाए। महाभारत में अतिथि को ईश्वर का प्रतिनिधि कहा गया है। वेदव्यास कहते हैं कि अतिथि के आने से घर में समृद्धि और प्रसन्नता आती है 10 यज्ञों का सुफल अतिथि की सेवा करने से प्राप्त होता है। पांडवों के वनवास के समय द्रोपदी द्वारा   ऋषियों को भोजन कराने का प्रसंग भी यहां पर वर्णित है:-  जब पांडव वनवास पर थे तब एक समय महर्षि दुर्वासा अपनी 10000 शिष्यों के साथ भोजन करने पधारे, उस समय तक पांडव भोजन कर चुके थे I माना जाता है कि द्रौपदी के पास सूर्य का दिया हुआ अक्षय पात्र था, जिसमें कभी भोजन समाप्त नहीं होता था जब तक कि द्रौपदी स्वयं उस पात्र में भोजन नहीं कर ले I उस दिन द्रौपदी अपना भोजन कर चुकी थी और ऋषि के आने की सूचना से अत्यंत परेशान हो गई उन्होंने तुरंत श्रीकृष्ण का स्मरण किया श्रीकृष्ण अपनी सखी द्रौपदी के बुलाने पर उनकी कुटिया में पहुंचे और द्रौपदी से कहा मुझे बहुत भूख लग रही है मेरे लिए भोजन की व्यवस्था करो I यह सुनकर द्रौपदी लज्जा के साथ बोली हे श्री कृष्ण! आप तो अंतर्यामी हैं कि मेरे पास अब इस पात्र में कोई भोजन नहीं बचा है और अभी सब ऋषि भोजन के लिए यहां पधारने ही वाले हैं मुझे यह चिंता हो रही है कि मैं उनको क्या खिलाऊंगी I

यह सुनकर श्रीकृष्ण ने अक्षय पात्र को अपने पास मंगवाया I उस पात्र में अक्षत का एक दाना अभी चिपका हुआ था जिसे श्रीकृष्ण ने उठाकर अपने मुंह में डाल लिया I उनके ऐसा करते ही गंगा तट पर स्नान कर रहे मुनि दुर्वासा और उनके शिष्यों का पेट भर गया जब सहदेव उन्हें भोजन के लिए बुलाने पहुंचे तो ऋषि वहां से जा चुके थेI इस वरदान से हमें यह पता चलता है कि भारत में वैदिक काल से ही अतिथि देवो भव की परंपरा चल रही है I आज समस्त विश्व कोरोना जैसी महामारी से ग्रसित है I ऐसे में हम अगर अपनी भोजन थाली को आधा करके किसी एक व्यक्ति को भोजन करा सके तो हम अपने वैदिक संस्कार अतिथि देवो भव का निर्वहन कर सकते हैं कहा भी गया है भूखे को भोजन कराने से अधिक  कोई कार्य नहीं है I आइए हमारी सनातन परंपरा की अतिथि सेवा यात्रा में हम साथ-साथ चलें I

Blog By : Ms. Malti Saxena

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