प्राचीन काल में संत महात्माओं एवं अन्य योग पुरुषों ने इंसान की दुखद स्थिति को ध्यान में रखते हुए मनुष्य का जो सबसे पहला और प्रमुख कर्तव्य बताया वह बिल्कुल सही था। यूनानी विचारकों ने कहा यदि पूजा करना बहुत जरूरी है तो अवश्य करें किंतु हमारा पहला कर्तव्य यह जानना है कि हम कौन हैं? और क्या है? इसलिए उन्होंने अपने पूजा घरों के दरवाजों पर लिख दिया अपने आप को पहचानो। आधुनिक युग के गुरु महात्माओं का भी यही पहला उपदेश है, हालांकि इस महान कथन “अपने आप को पहचानो” का जो अर्थ विद्वानों ने बताया है वह आजकल के मनोवैज्ञानिकों द्वारा बताए गए अर्थ से बिल्कुल भिन्न है। जब तक मनुष्य अपने आप को इस धरती का जीव या धूल मिट्टी में रहने वाला कीड़ा समझता है और अपने आप को सिर्फ इस स्थूल जगत तक ही सीमित रखता है तब तक उसकी स्थिति ऐसी बनी रहेगी। अपनी सोच के कारण उसने अपने पैरों मैं खुद बेड़ियां डाल दी है। जब मनुष्य को अपने असली स्वरूप की थोड़ी सी भी झलक मिलती है और जब वह जान जाता है, कि थोड़ी सी कोशिश करके वह क्या बन सकता है उस समय यह ज्ञान उसके लिए सबसे बड़ा प्रेरणा स्त्रोत बन जाता है।
मनुष्य को अपनी बुद्धि के बल पर हासिल की गई उपलब्धियों पर बहुत गर्व है। यह उपलब्धियों प्रशंसा के काबिल भी है, परंतु अपने दिमाग की जितनी शक्ति का उपयोग वह कर रहा है उसकी क्षमता तो उससे करोड़ों गुना अधिक है। बड़े-बड़े वैज्ञानिकों का यह मानना है कि आम आदमी अपने मस्तिष्क के बहुत थोड़े से भाग का प्रयोग करता है। यह बहुत आश्चर्यजनक है। फिर बाकी मस्तिष्क का क्या काम है ? अगर मनुष्य को अपने सामर्थ्य का ज्ञान हो जाए और वह अपनी ताकत का पूरा उपयोग करें, तो उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं है। क्या कोई इतनी बड़ी जागरूकता की कल्पना कर सकता है? सच्चाई तो यह है कि असली मानव अभी अवतरित ही नहीं हुआ है। पिछले 50 वर्षों के दौरान यदि हम बुद्धि के बल पर हासिल की गई मनुष्य की सफलताओं को देखें तो हमें मनुष्य के भीतर छिपी असीम शक्तियों की कुछ झलक मिल सकती है। धरती के नीचे हो रही भयानक और असाधारण उथल-पुथल और चट्टानों के नीचे होने वाले भारी-भरकम परिवर्तनों की खोज हमें आश्चर्यचकित कर देती है, लेकिन यदि इस बात पर विचार करें तो हम हैरान रह जाएंगे कि हजरत ईसा के समय से लेकर पिछली कई शताब्दियों की अपेक्षा पिछले 50 वर्षों में मनुष्य के अपने जीवन के दौरान ही कहीं अधिक परिवर्तन हुए हैं। मनुष्य ने उन्नति करते-करते ऐसे उपकरणों को बनाया है या खोज की है, जिनके माध्यम से हम एक स्थान पर बैठे-बैठे संपूर्ण विश्व की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। भले ही मनुष्य ने विज्ञान के क्षेत्र में बहुत उपलब्धियां हासिल की है, यहां तक कि पृथ्वी और प्राकृतिक शक्तियों को भी वश में कर लिया है लेकिन यह सब उन उपलब्धियों के सामने कुछ भी नहीं है जो मनुष्य अपनी असली विरासत की पहचान के बाद हासिल कर सकता है। इंसानी दिमाग की उपलब्धियां जो बहुत बड़ी दिखाई देती है आत्मा की शक्ति के सामने छोटे बच्चों के खेल जैसी है जब मन और आत्मा परमात्मा की रोशनी से सरोबार हो जाते हैं, तो बुद्धि के बल पर हासिल की गई संसार की सभी उपलब्धियां उस आत्मा की उपलब्धियों का मुकाबला नहीं कर सकती। जब मनुष्य अपनी वासनाओं को वश में करके मन को नियंत्रित कर लेता है और जब आत्मा आजाद हो जाती है और प्रकाशमय हो जाती है तब मनुष्य को अपने पावन जन्मसिद्ध अधिकार का कुछ कुछ अंदाजा होने लगता है।
अतः मनुष्य को अपनी आंतरिक क्षमताओं एवं शक्तियों को पहचान कर उनका उचित ढंग से कुशल उपयोग करके जीवन में सफलता के नए आयाम स्थापित करने चाहिए यही मनुष्य की वास्तविक खोज है और यही उसका प्रथम कर्तव्य है कि वह सर्वप्रथम अपने आप को पहचाने कि उसमें कि उसमें कितनी प्रतिभाएं छिपी है और वह अपनी आत्मा की शक्ति के माध्यम से किस प्रकार से इस संपूर्ण संसार में अपनी एक अलग पहचान विकसित कर सकता है।
Blog By : Ms.Pushpa Kumawat
Keywords :- परमात्मा, सामर्थ्य ,जागरूकता, असीम शक्ति, प्रतिभा।